कलयुग का कृष्ण
आज वेह फिर आया
बांसुरी की मीठी धुन ने बताया
हाँ, वोह एक इंसान है
लकड़ी के फट्टे पर, पहिये लगा कर आता है
उसके दोनों पैर नहीँ हैं
चेहरा है, दो हाथ हैं, और
जीने की अथाह आस है
औरों पर क्या, वोह खुद पर भी तरस नहीं खाता
आस- पास का वातावरण,सुरमय हो जाता है
जब वेह घर के पास से होकर गुजर जाता है
लोग उसको दस – बीस रुपये दे देते हैं
वेह बांसुरी बजाकर मुस्कुराकर निकल जाता है
वो भजन गाता है, गीत गाता है
मे्रे मितवा,मे्रे मीत, गाता है
लोग रुकते हैं, उसको सुनते हैं
फिर मुस्कुराकर चले जाते हैं
उसकी बांसुरी रूकती है,
तो पहिये बोलते हैं
हाथों से चलाकर
वोह जगह जगह घूमते हैं
कोई अचानक से धुन सुने
तो मंत्र मुगद हो जाये
जैसे कृष्ण की बांसुरी सुन
गोपियाँ मद मस्त हो जाएँ
वो तो कृष्ण था
सोलह कला सम्पूर्ण
और ,ये ,ऐक आधा – अधूरा इंसान
कहाँ चाँद, कहाँ चकोर
लेकिन यहाँ बात मान लेने की है
कुछ कड़ा ठान लेने की है
चाहे कितनी कमियां – कठिनाईयां हों
खुद को स्थिर करने की, सम्भाल लेने की है
रचना