माँ का जीवन चक्र
दिनांक : १५-०७-२१
बच्चे के जन्म से ही माँ, माँ होती है
उस से पहले , वो सिर्फ ऐक औरत होती है
पेट मे अंकुरित होने के बाद से ही
वेह तय्यारियों मे लग जाती है
अच्चा खाती है ताकि वेह स्वस्थ हो
खुश रहती है ताकि वेह खुश- मिजाज हो
कार्यशील रहती है ताकि वेह आलसी ना हो
वक्त से और बराबर खाती है ताकि उसमे कोई कमी ना हो
यानि उसका हर कार्य उसी को समर्पित होता है
वेह उसके छोटे – छोटे कपडे तय्यार करती है
नरम गद्दा तय्यार करती है
और ढेर सरे सपने बुनती है
नो महीने इसी तरहं उसका लालन- पालन करती है
फिर वक्त आने पर अथाह पीड़ा सह कर उसे जन्म देती है
फिर नन्ही जान को परहेजों की गुफा से गुजारती है
उसके लिए ज्यादा गर्मी ना हो, ठण्ड ना हो
उसका हर पल ध्यान रखती है
खुद गीले मे सोकर , उसे सूखे मे रखती है
उसे नियमित और पोष्टिक खुराख मिले, उसमे लगी रहती है
उसकी ऊंगली पकड़ कर उसे चलना सीखती है
उस से बात करते – करते उसे बात करना सिखाती है
उसे आदर्श देती है, संस्कार देती है
वो कुछ गलत ना करे, डानट भी देती है
वो हँसता है तो हंसती है
वो रोता है तो रोती है
अरे माँ तो ऐसी ही होती है
माँ बच्चे के लिए अपना अस्तित्व मिटा देती है
इस सब मे वो भूल जाती है, उसकी अपनी भी कोई ज़िन्दगी है
अपने भी कुछ सपने हैं अरमान हैं
इस सब पर बच्चा कुछ अच्छे से कर जाये
तो माँ की ही जीत होती है
कुछ गलत हुआ तो
माँ को ही दोष मिलता है
देर रात तक वो बाहर हो
तो उसके दिल पर बिच्छू लोट जाते हैं
और अगर बाहर पढने जाये
तो माँ हर पल चिंतित रहती है
उस के अच्छे भविष्य के लिए
वेह तिल- तिल मरती है
उसका शरीर सिर्फ घर पर होता है
प्राण हमेशा हलख मे ही रहते हैं
पता नहीं ठीक से खाया, सोया
दोस्त तो ठीक होंगे ना?
किसी परेशानी मे ना पड़ जाए
कहीं कुछ खतरा तो नहीं ?
स्वस्थ तो है ना ?
फिर बात करके तस्सली कर लेती है
माँ तो भई, ऐसी ही होती है
बच्चे के बड़े होने के साथ- साथ
माँ की चिंताएं भी बड़ने लगती हैं
नौकरी अच्छी मिलेगी ना, बीवी अच्छी होगी ना
वो आबाद होगा ना,उसको सुख मिलेगा ना
फिर वो खुदसे कहती है,आल इस वेल
खुद को सांत्वना देती रहती है
तभी तो जी पाती है
वरना उस का जीवन चक्र कभी का थम जाता
उसकी आकांक्षाओं – भावनाओं का भवंडर शांत हो जाता
रचना