अफगान रिफ्यूजी
आतंक से भागकर
जोख़िम का फंदा डालकर
गोलियों से बच बचाकर
कितने लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गये
सब की ऐक कहानी थी
हंसती – खेलती जिंदगानी थी
मदमस्त जवानी थी
उत्साह और रवानी थी
दहशत कोसों दूर थी
वेह्शत कुछ छुपी ज़रूर थी
मनमाना करने की छूट थी
सब की ऐक पह्चान ज़रूर थी
अपना एक आशियाना था
अपना ऐक ठिकाना था
खाने – खिलाने का दस्तूर था
अपना कुछ कर गुज़रने का जूनून था
अभी सब दिशाहीन हो गये
अस्तित्वहीन हो गये
भटक गये और भीड़ हो गये
भविष्य के अंधकार मे लीन हो गये
इतिहास बताता है
याद १९९० की दिलाता है
कैसे अपनी जन्मभूमि से
पंडित ही भगाए गये
कड़ी से कड़ी जुडती है
ज़ख़्म का मलहम उधड़ता है
और दिल चीत्कार करता है
ऐक बार फिर हँसते – खेलते लोग बेघर हो गये
अब् वो सिर्फ रिफ्यूजी होंगे
खाने – रहने के लिए मोहताज
कुत्ते के पट्टे की तरहं
उन्हें भी ऐक पट्टा दिया जायेगा !
क्या इसी के लिए——–
माओं ने अपने दुध – मुहे बच्चों को
किसी तरहं हवाई अड्डे तक पहुंचा दिया
वहां खडे अमेरिकन जवानों के
रहमो कर्म पर छोड़ दिया
कुछ जंगले की तार मे उलझे
कुछ हवाई जहाज़ से लटके
कुछ तालिबान के वार से लुडके
कुछ अफरा – तफरी मे भटके
बड़ा दर्दनाक मंज़र था
चीखों – पुकार का आलम था
चलचित्र से भी ज़्यादा क्रूर
मानवता के चीरहरण का चित्रण था
वो जहाँ भी जायेंगे
क्या अपनी पहले सी आज़ादी पायेंगे?
अपना खोया हुआ घर-संसार पायेंगे?
सकून,चैन की साँस ले पायेंगे?
उनका वजूद क्या है?
उनका कुसूर क्या है?
उनका मुकाम क्या है?
उनकी मंजिल क्या है?
रचना